Wednesday 8 June 2011

जानकारी के अभाव में सिमटता सूचना का अधिकार

लोकतंत्र के नाम पर हमारे पास एक महज एक अधिकार है, पांच साल में अपना वोट देने का। व्यवस्था से शिकायत हो तो हम ज्यादा से ज्यादा पांच साल में अपना वोट सरकार बदलने के लिए दे सकते है। साठ साल से लोग यही करते आए है। एक लोकतांत्रिक देश में आम-आदमी ही व्यवस्था है यानि आम आदमी सरकार का मालिक होता है। इस नाते यह जानने का अधिकार है कि उसकी सेवा के लिए उसके द्वारा ही बनी और उसी के टैक्स के पैसे से चल रही सरकार, क्या, कहां और कैसे क्या कर रही है । केन्द्र और राज्य सरकार को मिलाकर देखे तो हमने हर पार्टी और नेता को सत्ता में बिठाकर देख लिया। व्यवस्था के सामने आम आदमी की हैसियत वहीं की वही है। सिर्फ सूचना का अधिकार कानून एक ऐसा रहा, जिसने आम आदमी को व्यवस्था से सवाल पूछने की ताकत दी। चार साल पहले सूचना के अधिकार ने आम आदमी को यह ताकत दी कि वह सवाल पूछ सके।
सूचना का अधिकार, एक ऐसा कारगर हथियार बनकर उभरा जिसने स्वतंत्र भारत में बोलने की आजादी दी। सूचना का यह अधिकार कानून आज समाज में अनेक धड़ो के लोगों द्वारा कई तरीके से उपयोग में लाया जा रहा है। सूचना का हक पाने की लड़ाई के 15 वर्ष होने और उसे कानूनी शक्ल मिलने के चार साल बाद यह जानना खास होगा कि इस कानून के तहत किसान, कामगारों, वकीलों, न्यायाधीशॉ, अवकाश-प्राप्त या कार्यरत नौकरशाह, कलाकारों, अकादमिशीयनों, पत्रकारों और आम नागरिकों को क्या मिला है जिससे वे लोकतांत्रिक ढांचे में मिले इस अहम अधिकार के जारी रहने की पैरवी, प्रोत्साहन और संरक्षण के लिए उद्यत हो सकें। यह सवाल हमारे बीच के उन लोगों को याद दिलाने के लिए मायनेखेज है जो सत्ता की निरंकुशता और गोपनीयता बनाए रखने के लिए राज्य सरकार के कथित जरूरी तर्कों का शिकार होते है। इसलिए हमारे जीवन पर असर डालता है। निसंदेह, सूचना अधिकार कानून के जरिए, नागरिक सत्ता की निरंकुशता पर नकेल कस सकते है और एक तरह से बंद तथा गोपनीय रखी गई प्राशसनिक प्रणाली में सीधे-सीधे भागीदार हो सकते है। यह कानून ऐसा उपकरण है, जो सरकार से उसके किसी मकहमे से रोजाना पूछने की इजाजत देता है और बदले में प्राप्त सूचनाएं संस्थाओं के लोकतांत्रिक रूपांतरण के लिए जारी सार्वजनिक संघर्ष को बल प्रदान करती है। यह कानून केवल सूचना तक ही बंधा हुआ नहीं है बल्कि वह राजनीति की प्रकृति भी बदलने में कारगर हो रहा है। चाहे राजनैतिक पार्टी हो, सहकारिता या कुछ राज्यों की पंचायते। वे इससे परे नहीं है। अतः आवश्यकता नागरिको द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन की है और सूचना का अधिकार कानून इसका एक उपकरण है, न यह राज्य प्रदत्त लाभ है, न ही इसके इस्तेमाल पर मिलने वाला संरक्षण है। यह सरल रूप से सवाल पूछने का हक है, जो एक सस्पष्ट और प्रभावी कानून के जरिए आम आदमी को अनेक जनप्रतिनिधियों के समक्ष खड़ा कर देता है।
सूचना के अधिकार से व्यवस्था में पारदर्शिता का रास्ता तो खुला है, लेकिन जवाबदेही के अभाव में इसकी उपयोगिता अधूरी है। अब चाहिए कि सरकारी अमला लोगो के प्रति सीधे जवाबदेही हो। सूचना के अधिकार ने शासको और शोषितों का रिश्ता ही बदल दिया है…. आज दूरदराज के आदिवासी इलाकों में बैठा एक अनपढ़ ग्रामीण भी शासको से न सिर्फ सवाल पूछ रहा है बल्कि जवाब न देने की स्थिति में उन्हें दंडित करवाने के कदम भी उठा रहा है। शायद इसलिए यह कानून लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में अभी तक किए गए प्रयासों में सबसे अधिक लोकप्रिय भी बन गय है। आज ऐसे सैकड़ो नहीं, हजारों मामलें है, जहां इस कानून ने शासन प्रक्रिया में आम आदमी की हैसियत बढ़ाई है।
लेकिन आज भी कई ऐसे लोग है, जो सूचना के अधिकार कानून से अनभिज्ञ है .आम आदमी के मन में आरटीआई फाइल करने से जुड़ी आधारभूत बातों की जानकारी के अभाव की वजह से सूचना आज़ादी का अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहा है . फिर भी कुछ लोगों को इस अधिकार की जानकारी है, ऐसे कई लाख लोग है जिन्होने सूचना के अधिकार का इस्तमाल करते हुए अपनी शक्ति का अनुभव किया . सूचना आयोग और सरकारी तंत्र की तमाम खामियों के बावजूद भी चार साल में इस कानून की उपलब्धियां कम नहीं है। लेकिन इन उपलब्धियों की और इस कानून की एक सीमा है।

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