Thursday, 9 June 2011

नहीं रहे एमएफ हुसैन....................

मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन का लंदन के रॉयल ब्राम्पटन अस्पताल में इलाज के दौरान निधन हो गया है |  95  वर्षीय हुसैन काफी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे |वह 2006 से लंदन में ही रह रहे थे। महाराष्ट्र के पंढ़रपुर में जन्मे हुसैन ने अपनी पंटिंग की शुरुआत 1990 में ज्यूरिख से की ,ज्यूरिख में सबसे पहली पेंटिंग प्रदर्शनी लगायी थी वहीँ से ही उनकी ख्याति  का विस्तार होता गया | सैन को भारत का पिकासो भी कहा जाता था |
बतौर चित्रकार हुसैन को 40 के दशक में ख्याति मिलनी शुरू हो गई थी 1990 उन्होंने बॉलीवुड स्टार माधुरी दीक्षित से प्रेरित होकर गजगामिनी पेंटिंग बनाई थी। इस पेंटिंग की वजह से उन्हें काफी ख्याति मिली। बाद में उन्होंने इसी नाम से एक फिल्म भी बनाई थी। 1
 देवी दुर्गा और सरस्वती के उनके चित्रों पर हिन्दू समूहों ने तीखी प्रतिक्रिया जताई और 1998 में चित्रकार के घर पर हमला कर उनकी कलाकृतियों को नुकसान पहुंचाया गया। फरवरी, 2006 में हुसैन पर हिन्दू देवी-देवताओं के निर्वस्त्र चित्र बनाकर लोगों की भावनाएं आहत करने का आरोप लगा।
1966 में उन्हें पद्दमश्री से नवाज़ा गया था और 1973 में में पद्दभूषण से सम्मानित किया गया था. वह पिकासो के बाद सबसे ब़डे पेंटर माने जाते थे। मगर भारत में उनके साथ जिस तरह का व्यवहार हुआ, वह शर्मनाक था। कुछ कट्टरपंथियों के दबाव में आकर उन्हें देश निकाला दिया गया। हुसैन भारत आने के इच्छुक थे, पर उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी | हुसैन के तीन चित्र हाल ही में हुई बोनहैम नीलामी में 2.32 करोड़ रुपये में नीलाम हुए। इसमें से एक अनाम तैलीय चित्र में इस किंवदंती चित्रकार ने अपने प्रिय विषय घोड़े और महिला को उकेरा था। अकेला यही चित्र 1.23 करोड़ रुपये में नीलाम हुआ।
भारत के मशहूर चित्रकार व फिल्म निर्माता-निर्देशक एम एफ हुसैन को आज भी लोग खरीदते हैं। उनका नाम आज भी कला प्रेमियों के जेहन में जिन्दा है।

Wednesday, 8 June 2011

‘जूतेबाज़ों’ का गुस्सा बिलकुल जायज़ है

ऐसा लग रहा जैसे विरोध में जूता चलाना एक नया चलन बनता जा रहा है | जूते मारने का प्रचलन  बाबर के समय से चलता आ रहा हैं | जंग के मैदान में तंबूं गड़े हुए थे। शाम होने की वजह से जंग रुक गई थी। दो सिपाही अपने तंबू के सामने एक-दूसरे पर जूता उछालने का खेल खेल रहे थे। एक सिपाही का फेंका हुआ जूता उधर से गुजर रहे एक आदमी को लग गया। उसने पलटकर देखा, मुस्कुराया और आगे बढ़ गया। उसकी शक्ल देखते ही दोनों सिपाहियों की जान सूख गई। उन्हें पूरी उम्मीद हो गई कि अब सर कलम होगा। दरअसल वह आदमी मुगल शहंशाह बाबर था, जो शाम की नमाज अदा करने बड़े तंबू की तरफ जा रहा था।
कई सदियां गुजर गई हैं और जूता लोकतांत्रिक हो गया है। अब जूता किसी पर गलती से नहीं बल्कि जानबूझकर आज के शहंशाहों की तरफ उछाले जा रहे हैं। वर्ष 2008 बग़दाद में  मुंतजर-अल-जैदी द्वारा पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश पर जूता उछाला गया तो जैदी ने खूब वाहवाही बटोरी थी ,उसके बाद धीरे-धीरे चीनी राजनीति भी इसका शिकार हूई और अब भारत में भी इसका चलन बढता जा रहा हैं  ।भारत में जूते-चप्पल की संस्कृति विदेशों से आयातित है । अब तक सुरेश कलमाड़ी ने मोरार जी देसाई की कार पर अस्सी के दशक में जूता फेंका था | वहीँ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृहमंत्री पी० चिदंबरम, भाजपा के पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, कांग्रेस नेता नवीन जिंदल, कर्नाटक के मुख्यमंत्री और चुनाव प्रचार कर रहे अभिनेता जीतेन्द्र के साथ ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं | 13 फ़रवरी 2009 को दिल्ली यूनिवर्सिटी में अरुंधती राय पर जूता फेंका गया था | ” यूथ यूनिटी फॉर वाइब्रेंट एक्शन ” ने कश्मीर मुद्दे पर अरुंधती की बयानबाजी को आड़े हाथों लेते हुए उस पर चप्पल फेंका था जिसे एक लाख रूपये में जंतर मंतर पर नीलाम भी किया गया था |
जूते फेंकने की इस घटना ने अब शाश्‍वत चिंता की शक्ल अख्तियार कर ली है | ये लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है, कह कर कृपया इसे नजरअंदाज न करें। जो आज के नेता कर रहे हैं, वह भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। जब देश का हर आठवां लोक सभा प्रत्याशी करोड़पति हो और ७७ फीसदी अवाम यानी ८३.५ करोड़ लोगों की हर दिन की कमाई बीस रुपये हो, आधी आबादी साफ पानी और इलाज के लिए तरस रही हो, जब लोगों को इंसाफ मिलना बंद हो जाए तो निःसहाय अवाम ऐसे ही किसी रास्ते को चुनती है। और अब जूता खाने वालों में जनार्दन द्वेदी भी भारतीय हस्तियों में शरीक हो गए हैं , सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पार्टी महासचिव जनार्दन द्विवेदी पर एक शख्स ने जूता तान दिया।  प्रेस कॉनफ्रेंस के दौरान उसने द्विवेदी से बाबा काला धन के मसले पर रामदेव के आंदोलन के संबंध में कोई सवाल किया, जिसे द्विवेदी ने टाल दिया। इस बात का विरोध करने के लिए उसने जूता जनार्दन द्विवेदी पर तान दिया
हम सभी इस बात से वाकिफ हैं की लोकतंत्र में अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति देने का सभी को हक़ हैं ,अपनी बात की ज्यादा से ज्यादा लोगो में प्रचारित करना और एक ही दिन में हीरो बनने के लिए पत्रकार अपनी कलम से मेहनत करने के बजाए जूतों का सहारा लेने लग गए हैं |  ‘जूतेबाज़ों’ का गुस्सा बिलकुल जायज़ है। इस व्यवस्था से भी और इस राजनीतिक दशा से भी। ये भी सच है कि पिछले 60 सालों में हर पार्टी ने इस देश को कई तरह से ठगा है, लेकिन इसके लिये जिस पर जूता चलना चाहिये क्या ये वही लोग हैं? क्या जूते का निशाना सही लोगों पर है?अब पब्लिक झूठे वादे सुनने को तैयार नहीं है। ये घटनाएं जाहिर करती हैं कि अब अवाम को नेताओं पर यकीन नहीं है और न उनके लिए मन में कोई इज्जत बची है। इसके लिए पब्लिक नहीं नेता जिम्मेदार हैं। याद करें कि सांसद पर आतंकी हमले की घटना के बारे में सुनने के बाद लोगों की सहज प्रक्रिया थी, कोई नेता नहीं मरा।
जूता प्रतिरोध का प्रतीक बनता जा रहा है। अगर ये नेता नहीं बदले तो ऐसे विरोध जोर पकड़ेंगे। निरीज जनता के पास शायद इससे सहज और कोई तरीका नहीं बचा है। सत्ता के कान तो शहीद भगत सिंह के समय में ही बहरे हो गए थे। लाचार जनता की आवाज इन नेताओं तक जब नहीं पहुंच रही हैं, लेकिन जूता जरूर पहुंच रहा है और अपनी पूरी बात आसानी से रख रहा है। ये दिखता भी है और डराता भी है।

जानकारी के अभाव में सिमटता सूचना का अधिकार

लोकतंत्र के नाम पर हमारे पास एक महज एक अधिकार है, पांच साल में अपना वोट देने का। व्यवस्था से शिकायत हो तो हम ज्यादा से ज्यादा पांच साल में अपना वोट सरकार बदलने के लिए दे सकते है। साठ साल से लोग यही करते आए है। एक लोकतांत्रिक देश में आम-आदमी ही व्यवस्था है यानि आम आदमी सरकार का मालिक होता है। इस नाते यह जानने का अधिकार है कि उसकी सेवा के लिए उसके द्वारा ही बनी और उसी के टैक्स के पैसे से चल रही सरकार, क्या, कहां और कैसे क्या कर रही है । केन्द्र और राज्य सरकार को मिलाकर देखे तो हमने हर पार्टी और नेता को सत्ता में बिठाकर देख लिया। व्यवस्था के सामने आम आदमी की हैसियत वहीं की वही है। सिर्फ सूचना का अधिकार कानून एक ऐसा रहा, जिसने आम आदमी को व्यवस्था से सवाल पूछने की ताकत दी। चार साल पहले सूचना के अधिकार ने आम आदमी को यह ताकत दी कि वह सवाल पूछ सके।
सूचना का अधिकार, एक ऐसा कारगर हथियार बनकर उभरा जिसने स्वतंत्र भारत में बोलने की आजादी दी। सूचना का यह अधिकार कानून आज समाज में अनेक धड़ो के लोगों द्वारा कई तरीके से उपयोग में लाया जा रहा है। सूचना का हक पाने की लड़ाई के 15 वर्ष होने और उसे कानूनी शक्ल मिलने के चार साल बाद यह जानना खास होगा कि इस कानून के तहत किसान, कामगारों, वकीलों, न्यायाधीशॉ, अवकाश-प्राप्त या कार्यरत नौकरशाह, कलाकारों, अकादमिशीयनों, पत्रकारों और आम नागरिकों को क्या मिला है जिससे वे लोकतांत्रिक ढांचे में मिले इस अहम अधिकार के जारी रहने की पैरवी, प्रोत्साहन और संरक्षण के लिए उद्यत हो सकें। यह सवाल हमारे बीच के उन लोगों को याद दिलाने के लिए मायनेखेज है जो सत्ता की निरंकुशता और गोपनीयता बनाए रखने के लिए राज्य सरकार के कथित जरूरी तर्कों का शिकार होते है। इसलिए हमारे जीवन पर असर डालता है। निसंदेह, सूचना अधिकार कानून के जरिए, नागरिक सत्ता की निरंकुशता पर नकेल कस सकते है और एक तरह से बंद तथा गोपनीय रखी गई प्राशसनिक प्रणाली में सीधे-सीधे भागीदार हो सकते है। यह कानून ऐसा उपकरण है, जो सरकार से उसके किसी मकहमे से रोजाना पूछने की इजाजत देता है और बदले में प्राप्त सूचनाएं संस्थाओं के लोकतांत्रिक रूपांतरण के लिए जारी सार्वजनिक संघर्ष को बल प्रदान करती है। यह कानून केवल सूचना तक ही बंधा हुआ नहीं है बल्कि वह राजनीति की प्रकृति भी बदलने में कारगर हो रहा है। चाहे राजनैतिक पार्टी हो, सहकारिता या कुछ राज्यों की पंचायते। वे इससे परे नहीं है। अतः आवश्यकता नागरिको द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन की है और सूचना का अधिकार कानून इसका एक उपकरण है, न यह राज्य प्रदत्त लाभ है, न ही इसके इस्तेमाल पर मिलने वाला संरक्षण है। यह सरल रूप से सवाल पूछने का हक है, जो एक सस्पष्ट और प्रभावी कानून के जरिए आम आदमी को अनेक जनप्रतिनिधियों के समक्ष खड़ा कर देता है।
सूचना के अधिकार से व्यवस्था में पारदर्शिता का रास्ता तो खुला है, लेकिन जवाबदेही के अभाव में इसकी उपयोगिता अधूरी है। अब चाहिए कि सरकारी अमला लोगो के प्रति सीधे जवाबदेही हो। सूचना के अधिकार ने शासको और शोषितों का रिश्ता ही बदल दिया है…. आज दूरदराज के आदिवासी इलाकों में बैठा एक अनपढ़ ग्रामीण भी शासको से न सिर्फ सवाल पूछ रहा है बल्कि जवाब न देने की स्थिति में उन्हें दंडित करवाने के कदम भी उठा रहा है। शायद इसलिए यह कानून लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में अभी तक किए गए प्रयासों में सबसे अधिक लोकप्रिय भी बन गय है। आज ऐसे सैकड़ो नहीं, हजारों मामलें है, जहां इस कानून ने शासन प्रक्रिया में आम आदमी की हैसियत बढ़ाई है।
लेकिन आज भी कई ऐसे लोग है, जो सूचना के अधिकार कानून से अनभिज्ञ है .आम आदमी के मन में आरटीआई फाइल करने से जुड़ी आधारभूत बातों की जानकारी के अभाव की वजह से सूचना आज़ादी का अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहा है . फिर भी कुछ लोगों को इस अधिकार की जानकारी है, ऐसे कई लाख लोग है जिन्होने सूचना के अधिकार का इस्तमाल करते हुए अपनी शक्ति का अनुभव किया . सूचना आयोग और सरकारी तंत्र की तमाम खामियों के बावजूद भी चार साल में इस कानून की उपलब्धियां कम नहीं है। लेकिन इन उपलब्धियों की और इस कानून की एक सीमा है।

महिला सशक्तिकरण का छलावा

नारी के मान-सम्मान कि रक्षा की जानी चाहिए ,सुरक्षा के अंतर्गत उन्हें समान अधिकार और उनके लिए कायदे कानून बनाने चाहिए, न जाने कितने नियम और कानून बनते आ रहे है, पर फिर भी इस समाज में नारी आज भी अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं कर रही है. राह पर चलते हुए, स्कूल कॉलेज, कार्यालयों तथा अपने घर में भी असुरक्षा का भाव मन में सदैव उमड़ता रहता है. सोचने वाली बात यह है कि घर से लेकर बाहर तक उनको हर जगह शोषण का शिकार होना पड़ता है. छोटे लडके से लेकर अधेड़ उम्र के पुरुष को भी उनका शोषण करने में कोई संकोच नहीं होता, अब ना तो उम्र का लिहाज रह गया हे और संस्कारो कि तो बात छोड़ दीजिये. आज सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा (बलात्कार ) और अपराध बढते जा रहे है, रुचिका,आरुषी, प्रियदर्शनी मट्टू कांड न जाने कितने उदहारण है. एक सर्वेक्षण के जरिये २०-३० %महिलाएं रोज़ उत्पीड़न का शिकार होती है. पारिवारिक और सामाजिक मर्यादा के कारण कितनी महिला चुप चाप सब कुछ सह लेती है. इसके साथ ही लाज, शर्म और भय के कारण महिलाएं किसी को बताने से भी हिचकिचाती है. सौ में एक महिला में हिम्मत होती भी है तो न्याय में देरी के कारण अपराधी को सजा नहीं मिल पाती है, कई तो संरक्षकों कि बदनामी कि वजह से आपस में ही मामला समझा-भुझाकर या ले- देकर मामले को वहीँ रफा दफा कर दिया जाता है.
यदि किसी महिला के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार का शिकार होती है. तो उसे अंधकार कि चादर इस तरह घेर लेती, जिससे ता उम्र वह निकल नहीं पाती है. समाज के किसी कोने में उसके लिए सहानुभूति, सम्मान और प्यार तक कि कोई गुंजाईश नहीं रहती. समाज तो दूर घरवाले भी उसे नकारते हें, प्यार के दो बोल के लिए वह तरसती है, कसूर किसी का और सजा कि भोगी नारी बन जाती है. आज हमारा पुलिस तंत्र भी पूर्ण रूप से अपंग हो गया है, कानून कि तो धज्जियां उड़ चुकी है, प्रत्येक विधेयक में महिला आरक्षण का मुद्दा उठाया जाता है की राजनीति में ३३% आरक्षण महिलाओं को मिलना चाहिए, जब तक निति निर्माण में महिलाओं कि अहम् भूमिका नहीं होगी, तब तक महिलाओं को उनके हक़ में कभी कुछ भी नहीं मिलेगा. स्वतंत्रता से लेकर अब तक महिलाओं के यौन शोषण को लेकर अब तक कोई विधेयक नहीं लाया गया. नारी सशक्तिकरण को लेकर प्रतिवर्ष ८ मार्च को विश्व महिला दिवस मनाया जाता है, जहाँ स्त्री आधिकारो की बात की जाती रही है, आय दिन सम्मलेन कराय जाते हैं, पत्र पत्रिकाओं में नारी उद्धार को लेकर न जाने कितने लेख छापे जाते हैं, नारी सशक्तिकरण का झंडा फहराते हुए सालों बीत गए है, पर इससे मुक्ति मिलने का एक रास्ता भी आज तक नज़र नहीं आया.
वर्त्तमान सन्दर्भ में बलात्कार वृद्धि का कारण जानने का प्रयास करे तो बलात्कार कि घटनाओं के पीछे उपभोक्तावादी संस्कृति, संस्कार के साथ-साथ पारिवारिक मनोवृति, साथ ही संचार माध्यमो मैं बढते सेक्स, अश्लील यौन साहित्य, फिल्म विडियो आदि का प्रदर्शन बलात्कार कि घटनाओं को अंजाम दे रहा है. जब हमारा समाज फिल्मो में पुरुष-महिला के अन्तरंग प्रेम संबंधो को पर्दे पर देखता है तब उसी का अनुसरण करने में तथा अपने जीवन में उतरने में उन्हे जरा भी संकोच नहीं होता. अंततः हमें बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के विरुद्ध अपराध नहीं बल्कि शसक्त समाज के विरुद्ध अपराध है, साथ ही स्त्री की सम्पूर्ण मनोभावना को नष्ट करने में भी कोई क़सर नहीं छोड़ता. अतः हमें स्त्री आधिकारों के विरुद्ध जागरूक होना चाहिए, साथ ही ऐसा कुकृत्य करने वाले को दंड मिलना चाहिए …………

शिक्षा क्षेत्र में समाज का सहयोग जरुरी

सचमुच यह विडम्बना ही है कि विश्व भर में एक बड़ी आबादी निरक्षर है और उस निरक्षर आबादी का तीसरा हिस्सा भारत में निवास करता है . सिर्फ धन के आभाव के कारण आज एक गरीब व्यक्ति अपने बच्चे को शिक्षित कर पाने में असमर्थ है . अनुशासन में कमी ,अव्यवस्था और बदतर परिस्थितियों का आलम यह है कि ४ में १ अर्थात २५% शिक्षक हमेशा कक्षा में अनुपस्थित रहते हैं . समस्यां केवल यहीं तक ही सीमित नहीं है , आलम यह भी है कि, भारत में जहाँ कक्षाओं का औसत आकर ४० विद्यार्थी प्रति कक्षा है ,जबकि बिहार समेत उत्तर भारत में औसत एक कक्षा में ८३ छात्र \छात्रा तक पहुंचता है .
शिक्षा के प्रति यह उदासीनता ,सिखाने वाले पाठ्यक्रम का न होना और संसाधनों के आभाव ने सरकार को यह सोचने के लिए यह विवश कर दिया कि आम तौर पर शिक्षा और साक्षरता के प्रति नयी समझ की आवश्यकता है . शिक्षा के कार्यक्रम को आगे ले जाने के लिए,सरकार प्रतिवर्ष एक लाख करोड़ रूपए से भी अधिक धन खर्च करती है, उस धन से कितने लोग लाभान्वित हो रहे हैं और कितने प्रतिशत लोग शिक्षा अर्जित कर पा रहे हैं ,यह एक महत्तवपूर्ण सवाल है ?
शिक्षा का उद्देश्य तो यह होना चाहिए, जो बच्चों को परिपक्व बनाने के साथ-साथ एक ऐसा इन्सान बनाना जो कल्पना शील और वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो और देश का भावी कर्णधार बन सकें .साथ ही शिक्षा केवल पढना और लिखना नहीं सवालों का जवाब हासिल करने के लिए संघर्ष करना और अपनी बातों को अभिव्यक्त करना भी है . शिक्षा दूसरों से प्रतियोगिता नहीं बल्कि दूसरों का सहयोग करना सिखाती है .शिक्षा वो लिंग ,जाति और संस्कृति की बुराइयों को समाप्त करना सिखाती है .साथ ही न्याय से जूझना सिखाती है ,परन्तु वर्त्तमान स्कूलों का पाठ्यक्रम समाज न ही जागरूक बनाने में और न ही समाज की स्थिती को बदलने में सहायक हो पाया . अतः जरुरत है एक नयी सोच की ,जो शिक्षा की मूलभूत खामियों को जानने में सहायक हो .और साथ ही शिक्षित युवाओं को शिक्षक बनाने की राह में प्रोत्साहित कर सकने में सहायक हो . सिर्फ इतना ही नहीं सरकार की स्कूली पाठ्यक्रम में अधिक गुणवत्ता के साथ शिक्षा की उचित व्यवस्था पर केन्द्रित होना चाहिए .
भारत के अधिकतर राज्यों में शिक्षा के कुल बजट का 95 प्रतिशत शिक्षकों के वेतन पर खर्च होता है , जबकि विद्यालय और अध्ययन सामग्री पर कभी-कभी 1 प्रतिशत से भी कम राशि खर्च हो रही है ….. इसके बारे में भारी विभिन्नता वाले विश्लेषण भी प्रस्तुत हो रहे हैं। हाल में ही ,समूचे भारत में अनिवार्य शिक्षा विधेयक पारित हो गया है,जिसके तहत ६ से १४ साल तक के सभी बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराना संवैधानिक अधिकार बना दिया गया है | इस कानून के लागू होने के बाद अगर किसी बच्चे को शिक्षा का अवसर नहीं मिलता ,तो इसे सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी होगी |निरक्षरता सम्बंधित तथ्यों पर नजर डालें तो ८ राज्य बिहार,उत्तरप्रदेश ,मध्यप्रदेश ,आँध्रप्रदेश ,पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और महाराष्ट्र में से प्रत्येक राज्य में एक करोड़ से भी ज्यादा निरक्षर आबादी रहती है जो देश की कुल आबादी का ६९.७० % है | सरकार का मानना यह भी है कि शिक्षा विधेयक से आने वालें दिनों में साक्षरता प्रतिशत में वृद्धि होगी
अतः परिस्थितयों से निपटने के लिए सरकार की योजनाओं में समाज की भागीदारी आवश्यक है . शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे नेतृत्व की जरुरत है जो मूलभूत खामियों को पहचान कर , नयी सोच और प्रणाली के साथ शिक्षा का उजियारा देश के कोने-कोने तक पहुंचा सके ….